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बात-चीत

मदन सोनी से बातचीत

अमित कुमार विश्वास


प्रश्न. हिंदी में लोकप्रिय साहित्‍य को लेकर आपकी क्‍या राय है? क्‍या लोकप्रियता का भी कोई मूल्‍य है, वह मूल्‍य क्‍या है?

उत्तर. 'लोकप्रियता' कोई सुनिश्चित, सुपरिभाषित, निरपेक्ष अवधारणा नहीं है। 'लोकप्रिय साहित्‍य' आमतौर पर उस साहित्‍य को कहा जाता है, जो ज्यादा लोगों द्वारा पढ़ा जाता है, या जिसके बारे में माना जाता है कि‍ वह लोक के लिए प्रिय होता है, जैसाकि इस विशेषण से ही जाहिर है। इस दृष्टि से देखें तो हम, मसलन, रामचरित मानस को हिंदी की सबसे बड़ी 'लोकप्रिय' कृति कहेंगे। लेकिन जिस तरह के साहित्‍य को लक्ष्‍य करके हम इस विशेषण का उपयोग करते हैं, इस समय कर रहे हैं, जाहिर है, रामचरित मानस को उस तरह के साहित्‍य की कोटि में नहीं रखा जा सकता, बावजूद इसके कि इस तरह का साहित्‍य भी ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा पढ़ा जाता है। अगर हम इस कसौटी का इस्‍तेमाल करेंगे तो हमें परवर्ती लेखकों के मुकाबले प्रेमचंद को, अन्‍य भारतीय भाषायी लेखनों के मुकाबले हिंदी लेखन को, कविता के मुकाबले गद्य साहित्‍य को, कथेतर गद्य के मुकाबले कथात्‍मक गद्य आदि को 'गंभीर' के बरक्‍स 'लोकप्रिय' कहना पड़ेगा। इसलिए चूँ‍कि‍ अधिक पढ़ा जाना तथाकथित लोकप्रिय साहित्‍य का व्‍यावर्तक लक्षण नहीं कहा जा सकता; उसको 'लोकप्रिय साहित्‍य' कहना एक भ्रामक संज्ञा का इस्‍तेमाल करना है। कम लोगों द्वारा पढ़े जाने वाले साहित्‍य को अनिवार्यतः 'अलोकप्रिय' साहित्‍य कहना, या ज्यादा लोगों द्वारा पढ़े जाने वाले साहित्‍य को अनिवार्यतः गंभीर साहित्‍य न मानना तर्कसंगत नहीं है। तथाकथित लोकप्रिय साहित्‍य का व्‍यावर्तक लक्षण कुछ और है : इस तरह का लेखन किसी मूल्‍य-चेतना से उत्‍प्रेरित या किसी मूल्‍य-चेतना को उत्‍प्रेरित करने वाला नहीं होता। वह मानवीय संवेदना या मानवीय चेतना के उन सतही स्‍तरों को लक्ष्‍य करके लिखा जाता है जो अपनी उत्‍प्रेरणा या उद्दीपन के लिए किसी मूल्‍य की नहीं बल्कि तात्‍कालिक आनन्‍द की अपेक्षा करते हैं। वह हमारे वेदनतंत्र में गुदगुदी पैदा कर सकता है, ले‍कि‍न जितनी भंगुर यह गुदगुदी होती है, उतना ही भंगुर वह लेखन होता है। ऐसा साहित्‍य आपको अस्तित्‍व के अँधेरे, बीहड़ इलाक़ों में निहत्‍था छोड़ दिए जाने के जोखि़म से, नैतिक प्रश्‍नों तथा अपने ही अंतर्विरोधों का सामना की चुनौतियों से दूर, वास्‍तविकता के ऐसे संस्‍करण में निर्वासित करके रखता है जहाँ सब कुछ सरल, सुगम और सह्य प्रतीत होता है। चूँकि अधिकांश लोग, ज्यादातर समय चेतना और संवेदना के ऐसे ही सतही स्‍तरों पर रहते हैं, इस तरह का साहित्‍य इनके बीच आसानी से जगह बना लेता है। लेकिन क्‍या इस तरह के साहित्‍य को 'साहित्‍य' कहना स्‍वयं साहित्‍य की एक सतही परिभाषा करना नहीं होगा?

प्रश्न. क्‍या एक रचनाकार या आलोचक को लोकप्रियता से परहेज करना चाहिए?

उत्तर. निश्‍चय ही नहीं, बशर्ते कि इसके लिए उसको सच्‍चे साहित्‍य से, साहित्‍य के सच्‍चे मूल्‍यों से परहेज न करना पड़े।

प्रश्न. इन दिनों लोकप्रिय साहित्‍य को बढ़ावा देने के नाम पर साहित्‍य से विचार को खारिज तो नहीं किया जा रहा है?

उत्तर. यह प्रश्‍न मुझे स्पष्ट नहीं हो रहा है। हालाँकि‍ जहाँ तक विचार को खारिज किए‍ जाने का प्रश्‍न है, वह तो उस साहित्‍य में भी दिखाई देता है जिसको आप गंभीर साहित्‍य कहना चाहेंगे। और निश्‍चय ही यह उसको सरल-सुगम बनाने के नाम पर तो होता ही है।

प्रश्न. लोकप्रिय साहित्‍य के पाठकों के बीच लोकप्रिय होने के मुख्‍य कारण क्‍या हैं?

उत्तर. इसका जवाब आपके पहले प्रश्‍न के मेरे जवाब में निहित है। यहाँ मैं इतना और जोड़ना चाहता हूँ कि 'पाठक' साहित्‍य का होता है, उस चीज का नहीं होता जिसको आप 'लोकप्रिय साहित्‍य' कह रहे हैं। तथाकथित लोकप्रिय साहित्‍य पाठक को नहीं 'उपभोक्‍ता' को सम्‍बोधित होता है।

प्रश्न. क्‍या लोकप्रिय साहित्‍य भावनात्‍मक दृष्टि से हानिकारक और जीवन से पलायन को बढ़ावा देने वाला होता है?

उत्तर. कह नहीं सकता कि वह भावनात्‍मक दृष्टि से 'हानिकारक' होता है या नहीं लेकिन क्‍योंकि वह स्‍वयं भावनात्‍मक रूप से (जैसेकि बौद्धिक आदि अन्‍य दृष्टियों से भी) दरिद्र होता है इसलिए वह इस स्‍तर पर 'लाभप्रद' भी नहीं हो सकता। और, क्‍योंकि वह जीवन का (जैसे कि मृत्यु का भी) सरलीकरण करके ही अपना जीवन संभव करता है, वह जीवन के वास्‍तविक जटिल रूप से अपने उपभोक्‍ता को दूर रखता है।

प्रश्न. गंभीर और लोकप्रिय साहित्‍य में किस तरह का संबंध होना चाहिए?

उत्तर. यह संबंध, हालाँकि, क्‍यों जरूरी है? लेकिन साहित्‍य (जिसको आप 'गंभीर साहित्‍य' कह रहे हैं) चूँकि हर चीज से संबंध बनाने की संभावना से युक्‍त होता है, वह तथाकथित लोकप्रिय साहित्‍य को भी अपना विषय बना सकता है।

प्रश्न. आपकी राय में क्‍या गंभीर साहित्‍य की दुरूहता ने पाठक कम नहीं किए हैं?

उत्तर. इस प्रश्‍न के पीछे यह मानकर चला गया लगता है कि साहित्‍य (जिसको आप तथाकथित लोकप्रिय साहित्‍य के बरक्‍स 'गंभीर साहित्‍य' कह रहे हैं) अनिवार्यतः दुरूह होता है। क्‍या यह अपने आप में एक अगंभीर और दुरूह मान्‍यता नहीं लगती? दुरूहता एक सापेक्षिक चीज है। साहित्‍य अपने आप में दुरूह नहीं होता, लेकिन उस तक पहुँचने के लिए, उसको पढ़ने-समझने के लिए, उसके साथ तदात्‍म होने के लिए, एक खास तरह की शिक्षा-दीक्षा, संस्‍कार, यहाँ तक कि‍ शायद एक खास तरह की प्रतिभा भी आवश्‍यक होती है। इसी के साथ-साथ साहित्‍य नित्‍य कर्म या नैमित्तिक कर्म नहीं बल्‍कि‍ एक काम्‍य कर्म है (लेखक और पाठक दोनों के ही सन्‍दर्भ में)। आप उसकी कामना करते हैं तभी उसके पास जाते हैं; तभी वह आपके पास आता है। जिन लोगों के पास इन चीज़ों का अभाव होता है (और इनकी संख्‍या हमेशा ही ज्यादा रही है) उनके लिए साहित्‍य बेशक दुरूह लग सकता है।

प्रश्न. आपकी नजर में लोकप्रिय रचनाएँ हिंदी में कौन-सी हैं?

उत्तर. जैसा कि‍ मैंने आरंभ में कहा है, लोकप्रियता एक सापेक्षिक और इसीलिए अपने आप में एक अस्‍पष्‍ट अवधारणा है। इसलिए यह प्रतिप्रश्‍न आवश्‍यक है कि‍ लोकप्रिय कि‍न के बीच? साहित्‍य के पाठकों के बीच या साहित्‍येतर रचनाओं के उपभोक्‍ताओं के बीच?

प्रश्न. क्‍या आप मानते हैं कि‍ देवकीनंदन खत्री , कुशवाहा कांत , गुलशन नंदा ने बड़ी तादाद में हिंदी के पाठक तैयार किए और एक बड़े पुल का काम कि‍या? क्‍या अब वह पुल नहीं रहा? क्‍या आपने इन लेखकों को पढ़ा है?

उत्तर. सबसे पहले तो देवकी नन्‍दन खत्री को मैं उस सूची में शामिल नहीं मानता जिसमें आपने उनको शामिल कि‍या है। बहरहाल इन सभी की रचनाओं को पढ़ने वालों की तादाद तो निश्‍चय ही बहुत बड़ी रही है, लेकि‍न कुशवाहा कान्‍त, गुलशन नंदा आदि ने साहित्‍य और तथाकथित लोकप्रिय साहित्‍य के बीच कि‍सी तरह के पुल का काम कि‍या है, ऐसा मुझे नहीं लगता। उलटे, चूँकि‍ तथाकथित लोकप्रिय साहित्‍य भाषा आदि के अपने छद्मावरण के चलते साहित्‍य होने का और, इस तरह, उसको पढ़ने वाले में निहित पाठक हाने की संभावनाओं का दुर्विनियोजन कर उसमें पाठक होने का, भ्रम पैदा कर सकता है, इसलिए इस तरह के लेखकों की रचनाओं ने बजाय कि‍सी तरह के 'पुल का काम' करने के, साहित्‍य और उसके सम्‍भावित पाठक के बीच खाई भी पैदा कर दी हो सकती है। जहाँ तक मेरा प्रश्‍न है, मैंने देवकी नंदन खत्री की रचनाओं को तो पढ़ा ही है, गुलशन नंदा, इब्‍ने सफ़ी बी. ए. आदि का लेखन भी बड़ी तादाद में पढ़ा है। और मैं यह स्‍वीकार करूँ कि‍ यह इस लेखन को पढ़ने का मेरा अनुभव ही था कि‍ जब बाद में मैं सच्‍ची साहित्यिक कृतियों के संपर्क में आया तो इन कृतियों और उस तरह के लेखन के बीच के भेद ने इन कृतियों के मर्म को समझने में मेरी मदद की।


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हिंदी समय में अमित कुमार विश्वास की रचनाएँ